( ४२ ) के कयमानुसार पाटलिपुत्र सातवीं शताब्दि के पूर्वाद्ध के बहुत पहले उजा हो गया था। इससे यह निश्चित हो जाता है कि नाटक लिखने के समय पाटलिपुत्र की जो अवस्था थी वह सातवीं शताब्दि के पहले की थी। अर्थात नायक रचना का समय फाहियान की यात्रा में समय के पास पास, विशेषतः पहिले तथा सुएननंग के बहुत पहले था। कपूर प्राकार नाम : एक जैन अथ है जिसमें 'वीर निर्माणतो वर्ष श्वेको विशनो चतुर्दश व्दयुक्त षु व्यतीतेष दुरागमः चैत्र सप्तमी दिन विष्टौ भावी म्लेच्छ-कुलो नमः....गगा प्रवाहस्सन्नगरं प्लाधयिष्यति' लिखा है। तात्पर्य यह कि सन् १४७२ ई० में यह नगर तीसरी बार गंगा में डूब गया था। इसके पहले सन् ८५० ई० में कांगजु-एन के अनुमार भी यह नगर जल में डूब गया था। इसके पहिले त्रिलोकसार नामक जैन मय के अनुसार स० ४७२ वि० में पहिले पहिल पाटलिपुत्र जलमग्न हुआ था। उस ग्रंथ में, लिखा है कि 'श्री बीरनाथ निवृतेः सकाशात् पच्चोत्तर षट छत वर्षाणि पंचम.स युतानि गन्वा पश्चात विक्रमांक शकग जो जयते । तत उगरि चतुर्नवत्यत्तर त्रिशत वर्षाणि सप्त मासाधिकानि गत्वा पश्चात् कल्कि जायते । इससे यह ज्ञात हो गया कि मृद्राराक्षस में लिखित पटना की स्थिति ४७२ वि० के प्रथम मलमग्न के पहले की है। ऊर लिखे गए अनेक विद्वानों के सिद्धांतों तथा तों पर विचार करने से जो सार निकलता है वह संक्षेप्तः इस प्रकार है । प्रोफेवर निसन के सिद्धान को खंडनामक शालोचना करने पर जस्टिम तैसंग जे उनके सिद्धांतों में बैंच शब्द की भित्ति पर खड़े किए गए सिद्धांत के पिषय में लिखा है कि या इसे निस्सार न माना जाय तो यह श्राध्वीं शत ब्दि का द्योतक हो सकता है । मुद्राराक्षस नाटक से जो अंश अन्त ग्रंथों में उद्धन किए गए हैं, उनसे बह निश्चत हो ज ता है कि यह सं० १.४४ ले पूर्व की रचाई। भरतव':य के विपा में तर्क करते हुये उसका निर्माण का एक प्रकार निश्चित सा किया गया है । पाटलिपुत्र की स्थिति पर विचार करते हुए जरा तैलग ने आठवीं शताब्दि में निर्माणकान का होना संभवित माना है र अन्य प्रकार से विचार करने पर उसका चौथी शताब्दि के आस पास होना