पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/६७

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कर दिया और बहुत थोड़ा अन्नजल उन्हें देते थे। इससे चंद्रगुप्त को छोड़कर और सब मर गए । इसी समय सिंहलद्वीप के राजा ने जीवित सिंह के समान की एक मूर्ति पिंजड़े में बंद करवा कर भेजा कि जंगला बिना खोले ही वह बाहर निकाल लिया जाय । चंद्रगुप्त की मेधाशक्ति प्रसिद्ध थी, इससे वह इस पहेली को हल करने के लिए कैदखानेसे बाहर निकाला गया। चंद्रगुस ने उस सिंह को देखकर तुरंत समझ लिया कि यह मोम का बना हुआ है और उसे तप्त छड़ से गला कर निकाल दिया । इससे नंदों का द्वेष और भी बढ़ा और चंद्रगुप्त ने भी अपने पिता तथा भाई का बदला लेना निश्चित किया। । इसने एक दिन विष्णुगुप्त नामक ब्राह्मण को देखा कि वह कुशों को उखाड़ने तथा जड़ से नष्ट करने के महान उद्योग में लगा हुआ है । चणक .:. का पुत्र होने के कारण इसी का नाम चाणक्य भी था और पैर में गड़ जाने के कारण वह कुशों पर इतना कुपित था । चंद्रगुप्त ने अपनी अर्थ-मिद्वि में इससे अधिक सहायता पाने की प्राथा से मैत्री की और चाणक्य ने भी सहायता देने की प्रतिज्ञा की । एक दिन चाणक्य नंद के भोजनागार में जाकर प्रधान श्रासन पर बैठ गया और मंत्रियों के मना करने पर भी नदों ने उसे उस स्थान से उठवा दिया । चाणक्य ने इस अपमान से क्रोधांध होकर शिखा खोलकर प्रतिज्ञा की कि जब तक नंद वंश का नाश न कर लूँगा तब तक शिखा न बॉधगा । इसके अनंतर अपने सहपाठी इंदशर्मा नामक ब्राह्मण को चपथक के छद्म वेश में राक्षसादि मंत्रियों का भेद लेने मेगा और म्लेच्छराज पर्वतक को मगध का आधा साम्राज्य देने का लोभ देकर नंदों के विरुद्ध उभाडा। चंद्रगुप्त ने यह सहायता पाकर कुसुमपुर घेर लिया और नंदो के मारे जाने पर उस पर अधिकार कर लिया । राक्षस वृद्ध सर्वार्थसाद को सुरंग द्वारा बाहर एक आश्रम में लिवा गया, जहाँ वह चाराश्य के चरों द्वारा मारा गया । राक्षस ने कुछ दिन कसुमपुर में रहकर चंद्रगुप्त तथा चाणक्य को मारने का प्रयत्न किया पर सब चाणक्य की दूरदर्शिता से निष्फल हुए चंद्रगुप्त को मारने के लिए राक्षस द्वारा प्रेरित विषकन्या को चासक्य ने पर्वतक के पड़ाव में भेज दिया, जिससे संग करने के कारण वह उसी रात्रि को मर गया। पर्वतक का पुत्र मलयकेतु चाणक्य के