पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/९६

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द्वितीय अंक विराधगुप्त-उसने औषध में विष मिलाकर चंद्रगुप्त को दिया पर चाणक्य ने उसको देख लिया और सोने के बरतन में रखकर उसका रंग पलटा जानकर चंद्रगुप्त से कह दिया कि इस औषध में विष मिला है, इसको न पीना। . राक्षस-अरे वह ब्राह्मण बड़ा दुष्ट है । हाँ, तो वह वैद्य क्या हुधा ? विराधगुप्त-उस वैद्य को वही भौषध पिलाकर मार डाला। २७० राक्षस-(शोक से) हाय हाय ! बड़ा गुणी मारा गया। भला शयनघर के प्रबंध करने वाले प्रमोदक ने क्या किया ? विराधगुप्त-उसने सब चौका लगाया। राक्षम-(घबड़ा कर ) क्यों? विराधगुप्त-उस मूर्ख को जो आपके यहाँ से व्यय को धन मिला सो उसने अपना बड़ा ठाट बाट फैलाया । यह देखते ही चाणक्य चौकन्ना हो गया और उससे अनेक प्रश्न किए । जब उसने उन प्रश्नों • के उत्तर अंडबंड दिए तब उस पर पूरा संदेह करके दुष्ट चाणक्य ने उसको बुरी चाल से मार डाला। राक्षस-हा ! क्या दैव ने यहाँ भी उलटा हमी लगों को २८० । मारा! मला चंद्रगुप्त को सोते समय मारने के हेतु जो राजभवन में वीभस्सकादिक वीर सुरंग में छिपा रक्खे थे उनका क्या हुआ ? विराधगुष्प-महाराज ! कुछ न पूछिये । राक्षस- घबड़ा कर) क्या क्या! क्या चाणक्य ने जान लिया ? विराधगुप्त-नहीं तो क्या ? राक्षस-कैसे ? विराधगुप्त-महाराज ! चंद्रगुप्त के सोने जाने के पहले ही वह दुष्ट चाणक्य उस घर में गया और उसको चारों ओर से देखा तो भात की एक दरार से चिउँटियाँ चावल के कने लाती हैं, यह देख कर उस दुष्ट ने निश्चय कर लिया कि इस घर के भीतर मनुष्य २६. छिपे हैं । बस, यह निश्चय कर उसने उस घर में आग लगवा दिया।