पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१०४

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चतुर्थ अङ्क

भागुरायण---ठीक है, पर बात यह है कि अमात्य राक्षस का बैर चाणक्य से है, कुछ चन्द्रगुप्त से नहीं है, इससे जो चाणक्य की बातो से रूठ कर चन्द्रगुप्त उससे मन्त्री का काम ले ले और नन्दकुल की भक्ति से "यह नन्द ही के वंश का है" यह सोच कर राक्षस चन्द्रगुप्त ने मिल जाय और चन्द्रगुप्त भी अपने बड़े लोगों का पुराना मन्त्री समझकर उसको मिला ले, तो ऐसा न हो कि कुमार हम लोगों पर भी विश्वास न करें।

मलयकेतु---ठीक है, मित्र भागुरायण! राक्षस मन्त्री का घर कहाँ है?

भागुरायण---इधर कुमार इधर (दोनो घूमते हैं) कुमार! यही राक्षस मन्त्री का घर है---चलिए।

मलयकेतु---चलें (दोनों राक्षस के निकट जाते हैं)।

राक्षस---अहा! स्मरण आया (प्रकाश) कहो जी तुमने कुसुमपुर में स्तन कलस वैतालिक को देखा था?

करभक---क्यों नहीं?

मलयकेतु---मित्र भागुरायण! जब तक कुसुमपुर की बातें हो तब तक हम लोग इधर ही ठहर कर सुनें कि क्या बात होती है क्योंकि---

भेद न कछु जामैं खुलै, याही भय सब ठौर।
नृप सों मन्त्री जन कहहिं, बात और की और॥

भागुरायण---जो आज्ञा (दोनो ठहर जाते हैं)।

राक्षस---क्यों जी! काम सिद्ध हुआ?

करभक---अमात्य की कृपा से सब काम सिद्ध ही हैं!