पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१०८

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चतुर्थ अङ्क

देव नन्द को नहिं सह्यो, जिन भोजन अपमान।
सो निज कृत नृप चन्द्र की, यात न सहिहै जान॥

मलयकेतु---मित्र भागुरायण! चाणक्य के तपोवन जाने वा फिर प्रतिज्ञा करने मे कौन कार्यसिद्धि निकली है?

भागुरायण---कुमार! यह तो कोई कठिन नहीं है, इसका आशय तो स्पष्ट ही है कि चन्द्रगुप्त से जितनी दूर चाणक्य रहैगा उतनी ही कार्यसिद्धि होगी।

शकटदास---अमात्य! आप व्यर्थ सोच न करें, क्योंकि देखे---

सबहि भॉति अधिकार लहि, अभिमानी नृप चन्द।
नहिं सहिहै अपमान अब राजा होइ स्वछन्द॥
तिमि चाणक्यहु पाइ दुख, एक प्रतिज्ञा पूरि।
अब दूजो करिहै न कछु, उद्यम निज मद चूरि॥

राक्षस---ऐसा ही होगा। मित्र शकटदास! जाकर करभक को डेरा इत्यादि दो।

शकटदास---जो आज्ञा।

(करभक को लेकर जाता है)

राक्षस---इस समय कुमार से मिलने की इच्छा है।

मलयकेतु---(आगे बढ़कर) मैं आप ही से मिलने आया हूँ।

राक्षस---(संभ्रम से उठकर) अरे कुमार आप ही आ गये! आइए, इस आसन पर बैठिए।

मलयकेतु---मै बैठता हूँ आप विराजिए।

(दोनों बैठते हैं)

मलयकेतु---इस समय सिर की पीड़ा कैसी है?