पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१११

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मुद्रा-राक्षस

और भी

जो नृप बालक सो रहत, सदा सचिव के गोद।
बिन कछु जग देखे सुने, सो नहिं पावत मोद॥

मलयकेतु--(आप ही आप) तो हम अच्छे हैं, कि सचिव के अधिकार में नहीं (प्रकाश) अमात्य! यद्यपि यह ठीक है तथापि जहाँ शत्रु के अनेक छिद्र हैं तहाँ एक इसी सिद्धि से सब काम न निकलेगा।

राक्षस---कुमार के सब काम इसी से सिद्ध होंगे। देखिए---

चाणक्य को अधिकार छुट्यौ चन्द्र हैं राजा नए।
पुर नन्दमें अनुरक्त तुम निज बलसहित चढ़ते भये॥

जब आप हम---(कह कर लजा से कुछ ठहर जाता है)

तुव बस सकल उद्यम सहित रन मति करी।
वह कौनसी नृप! बात जो नहिं सिद्धि ह्वै है ता घरी॥

मलयकेतु---अमात्य? जो अब आप ऐसा लड़ाई का समय देखते हैं तो देर करके क्यो बैठे हैं? देखिए---

इनको ऊँची सीस है, वाको उच्च करार।
श्याम दोऊ वह जल श्रवत, ये गणडन मधु धार॥
उतै भँवर को शब्द इत, भँवर करत गुंजार।
निज सम तेहि लखि नासि है, दन्तनतोरि कछार॥
सीस सोन सिन्दूर सो, ते मतङ्ग बल दाप।
सोन सहज ही सोखि हैं, निश्चय जानहु आप॥

और भी---

गरजि गरजि गभीर रव, बरसि बसि मधुधार।
शत्रु नगर गज घेरिहैं, घन जिमि बिबिध पहार॥


  • पटना घेरने में सोन उतर कर जाना था।