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मुद्रा-राक्षस

(भागुरायण और सेवक आते हैं)

भागुरायण---(आप ही आप) चाणक्य की नीति भी बड़ी विचित्र है।

कहूँ बिरल कहुँ सघन कहुँ, विफल कहूँ फलवान।
कहुँ कृस, कहुँ अति थूल कछु, भेद परत नहिं जान॥
कहूँ गुप्त अति ही रहत, कबहूँ प्रकट लखात।
कठिन नीति चाणक्य की, भेद न जान्यो जात॥

(प्रगट) भासुरक! मलयकेतु से मुझे क्षण भर भी दूर रहने में दुःख होता है इससे यहीं बिछौना बिछा तो बैठे।

सेवक---जो आज्ञा---बिछौना बिछा है, विराजिए।

भागुरायण---(आसन पर बैठ कर) भासुरक! बाहर कोई मुझसे मिलने आवे तो आने देना।

सेवक---जो आज्ञा (जाता है)।

भागुरायण---(आप ही आप करुणा से) राम राम! मलयकेतु तो मुझसे इतना प्रेम करता है, मैं उसका बिगाड़ किस तरह करूँगा? अथवा---

जस कुल तजि अपमान सहि, धन हित परबस होय।
जिन बेच्यो निज प्रान तन, सबै सकत करि सोय॥

(आगे आगे मलय केत और पीछे प्रतिहारी आते हैं)

मलयकेतु---(आप हो आप) क्या करें राक्षस का चित्त मेरी ओर से कैसा है यह सोचते हैं तो अनेक प्रकार के विकल्प उठते हैं, कुछ निर्णय नहीं होता।

नन्दुवंश को जानि कै, ताहि चन्द्र की चाह।
कै अपनायो जानि निज, मेरो करत निवाह॥