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पञ्चम अङ्क

को ऐसा काम करने को कहता है कि जिस से मेरा प्राण जाय।

भागुरायण---भदन्त! हम तो यह समझते हैं कि पहिले जो आधा राज देने को कहा था, वह न देने को चाणक्य ही ने यह दुष्ट कर्म किया, राक्षस ने नही किया।

क्षपणक---(कान पर हाथ रख कर) कभी नहीं, चाणक्य तो विषकन्या का नाम भी नहीं जानता, यह घोर कर्म उस दुर्बुद्धि राक्षस ही ने किया है।

भागुरायण---हाय हाय! बड़े कष्ट की बात है। लो, मुहर तो तुमको देते हैं, पर कुमार को भी यह बात सुना दो।

मलयकेतु---(आगे बढ़ कर)

सुन्यौ मित्र! श्रुति भेद कर, शत्रु कियौ जो हाल।
पिता मरन को मोहि दुख, दुमुन भयो एहि काल॥

क्षपणक---(अाप हो आप) मूल्यकेतु दुष्ट ने यह बात सुन ली तो मेरा काम हो गया है (जाता है)।

मलयकेतु---(दाँत पीस कर ऊपर देख कर) अरे राक्षस!

जिन तोपै विश्वास करि, सौप्यौ सब धन धाम।
ताहि मारि दुख दै सबनि, साँचो किय निज नाम॥

भागुरायण---(आप ही आप) आर्य चाणक्य की आज्ञा है कि "अमात्य राक्षस के प्राण की सर्वथा रक्षा करना" इससे अब बात फेरें। (प्रकाश) कुमार! इतना आवेग मत कीजिये। आप आसन पर बैठिये तो मैं कुछ निवेदन करूँ।

मलयकेतु---मित्र क्या कहते हो? (बैठ जाता है)।

भागुरायण---कुमार! बात यह है कि अर्थशास्त्र वालो की