पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१२२

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पञ्चम अङ्क

गुन पै रिझवत, दोस सो दूर बचावत जौन।
स्वामी-भक्ति जननी सरिस, प्रनमत नित हम तौन॥

पुरुष—(हाथ जोड़ कर) कुमार! यही मनुष्य है।

भागुरायण—(अच्छी तरह देख कर) यह क्या बाहर का मनुष्य है या यहीं किसी का नौकर है?

सिद्धार्थक—मैं अमात्य राक्षस का पासवर्ती सेवक हूँ।

भगुरायण—तो तुम क्यो मुद्रा लिये बिना कटक के बाहर जाते थे?

सिद्धार्थक—आर्य्य! काम की जल्दी से।

भागुरायण—ऐसा कौन काम है जिसके आगे राजाज्ञा का भी कुछ मोल नहीं गिना?

सिद्धार्थक—(भागुरायण के हाथ में लेख देता है)।

भागुरायण—(लेख लेकर देख कर) कुमार! इस लेख पर अमात्य राक्षस का मुहर है।

मलयकेतु—ऐसी तरह से खोल कर दो कि मुहर न टूटे।

भागुरायण—(पत्र खोल कर मलयकेतु को देता है)।

मलयकेतु—(पढ़ता है) स्वस्ति। यथा स्थान में कहीं से कोई किसी पुरुष विशेष को कहता है। हमारे विपक्ष को निराकरण करके सच्चे मनुष्य ने सचाई दिखलाई। अब हमारे पहिले के रक्खे हुए हमारे हितकारी चरो को भी जो जो दने को कहा था वह देकर प्रसन्न करना। यह लोग प्रसन्न होंगे, तो अपना आश्रय छूट जाने पर सब भाँति अपने उपकारी की सेवा करेंगे। सच्चे लोग कहीं नहीं भूलते तो भी हम स्मरण कराते हैं। इन में से कोई तो शत्रु का कोष और हाथी चाहते