पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१३७

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१२२ मुद्रा-राक्षस आप ही आप ) क्या यह पिता के पहने हुए आभरण हैं ? ( प्रकाश ) आर्य ! यह आभरण आपने कहाँ से पाया ? राक्षस-जौहरी से मोल लिया था। मलयकेतु-विजये ! तुम इन श्राभरणों को पहचानती हो ? प्रतिहारी-(देखकर आँसू भर के ) कुमार ! हम सुगृहीत नामधेय महाराज पर्वतेश्वर के पहिरने के आभरणों को न पहचानेंगी? मलयकेतु-(अॉखों में आँसू भर के) भूषण प्रिय ! भूषण सबै, कुल भूषण! तुम अग। तुव मुख ढिग इमि सोहतो, जिमि ससि तारन सङ्ग । राक्षस-(आप ही आप ये पर्वतेश्वर के पहिने हुए आभरण हैं ? (प्रकाश) जाना, यह भी निश्चय चाणक्य के भेजे हुए जौहरियों ने ही वेचा है। मलयकेतु-आर्य ! पिता के पहने हुए आभरण और फिर चन्द्रगुप्त के हाथ पड़े हुए जौहरी बेचें, यह कभी हो नहीं सकता। अथवा हो सकता है। अधिक लाभ के लोभ सों, कूर ! त्यागि सब नेह । बदले इन आभरण के तुम बेच्यौ मम देह ।। राक्षस-(आप ही आप) अरे! यह दाव तो पूरा मम लेख नहिं यह किमि कहैं मुद्रा छपी जब हाथ की। विश्वास होत न सकट तजि है प्रीति कबहूँ हाथ की ।। पुनि बेचि है नृप चन्द भूषण कौन यह पतियाइ है। तासों भलो अब मौन रहनो कथन तें पति जाइ है। मलयकेतु-आर्य्य हम यह पूछते हैं बैठ गया।