पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१४०

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पञ्चम अङ्क १२५ । चन्द्रगुप्त चाणक्य सों मिलिए सुख सों आप हम तीनहुँ को नासिहैं, जिमि त्रिवर्ग कह पाप ४॥ भागुरायण-कुमार! व्यर्थ अब कालक्षेप मत कीजिए । कुसुम- पुर घेरने को हमारी सेना चढ़ चुकी है। उड़िके तियगने गंड जुगल कह मलिन बनावति । अलि कुलसे कल अलकन निज कन धवल छवावति चपल तुरगखुर घात उठी घन घुमड़ि नवीनी । सत्रु सीस पै धूरि परै गजमद सों भीनी ।। (अपने भृत्यों के साथ मलयकेतु जाता है।) राक्षस-(घबड़ा कर ) हाय ! हाय ! चित्रवर्मादिक साधु सय व्यर्थ मारे गए । हाय ! राक्षस की सब चेष्टा शत्रु का नहीं, मित्रों ही के नाश करने की होती है। अब हम मन्दभाग्य क्या करें? जाहिं तपोवन, पैन मन, शांत होत सह क्रोध । प्रान देहिं ? रिपु के जियत, यह नारिन को बोध ।। खींचि खड्ग कर पतंग सम, जाहिं अनल अरि पास । पै या साहस होइ है, चन्दनदास बिनास ॥ ( सोचता हुअा जाता है) पटाक्षेप। जैसे धर्म, अर्थ, काम को पाप नाश कर देता है। इति पञ्चम अङ्का X --