पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२८ मुद्राराक्षस मिल गए; तो क्या कुकवियों के नाटक की भाँति इसके मुख में और तथा निवर्हण में और बात है ? सिद्यार्थक-वयस्य ! सुनो; जैसे दैव की गति नहीं जानी जाती बैसे ही आर्य चाणक्य की जिस नीति की भो गति नहीं जानी जाती उसको नमस्कार है। समिद्धार्थक-हाँ! कहो तब क्या हुआ ? सिद्धार्थक-तब इधर से सब सामग्री लेकर आर्य चाणक्य बाहर निकले और विपक्ष के शेष राजाओ को निःशेष करके बर्वर लोगों की सामग्रो लूट ली। समिद्धार्थक-तो वह सब अब कहाँ हैं ? सिद्धार्थक-वह देखो- स्रवत गंडमद गरब गज, नदत मेघ अनुहार । चावुक भय चितवंत चपल, खड़े अस्व बहु द्वार।। समिद्धार्थक-अच्छा, यह सब जाने दो। यह कहो कि सब लोगो के सामने इतना अनादर पाकर फिर भी आर्य चाणक्य उसी मन्त्री के काम को क्यो करते हैं ? सिद्धार्थक-मित्र ! तुम अब तक निरे सीधे साधे बने हो । अरे, अमात्य राक्षस भी आर्य चाणक्य की जिन चालो को नहीं समझ सकते उनको हम तुम क्या समझेंगे।' समिद्धार्थक-वयस्य ! अमात्य राक्षस अब कहाँ है ? सिद्धार्थक--उस प्रलय कोलाहल के बढ़ने के समय मलयकेतु की सैना से निकल कर उन्दुर नामक चर के साथ कुसुम-

  • अर्थात् नाटक की उत्तमता यही है कि जिस वर्णन; नीति और

रस से प्रारम्भ हो वैसे ही समाप्त हो, यह नहीं पहिले कुछ, पीछे कुछ ।