पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१४५

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१३० मुद्रा-राक्षस रिपु बन्धन मैं पटु प्रति पोरी। जय चानक्य नीति की डोरी॥ आर्य चाणक्य के चर उन्दुर ने इसी स्थान मे मुझको अमात्य राक्षस से मिलने को कहा है। ( देखकर ) यह अमात्य राक्षस सब अङ्ग छिपाये हुए आते हैं। तय तक इस पुरानी बारी मे छिप कर हम देखें, यह कहाँ ठहरते है । (छिप कर बैठता है) ( सब अङ्ग छिपाये हुए राक्षस आता है) राक्षस-(अॉखों मे ऑस् भर कर ) हाय ! बड़े कष्ट की बात है। आश्रय बिनसे और पै, जिमि कुलटा तिय जाय । तजि तिमि नन्दहि चचला, चन्द्रहि लपटी धाय ॥ देखा देखी प्रजहु -सब, कीनो ता अनुगौन। तजि कै निज नृप नेह सब कियो कुसुमपुर भौन ।। होइ बिफल उद्योग मै, तजि कै कारज भार । आप्त मित्र हू थकि रहे, सिर बिनु जिमि अहि छार ।। तजि के निज पति भुवनपति, सुकुल जात नृप नन्द । श्री वृषली गइ वृषल ढिंग, सील त्यागि करि छन्द ।। जाइ तहाँ थिर ह रही, निज गुन सहज बिसारि । बस न चलत जब बामविधि, सब कछु देत बिगारि ॥ नन्द मरे सैलेश्वरहि, देत चह्यौ हम राज। सोऊ बिनसे तब कियो, ता सुत हित सो साज ।। बिगरयौ तौन प्रबन्ध हू, मिट्यौ मनोरथ मूल । दोष कहा चानक्य को दैवहि भो प्रतिकूल ।। बाहरे म्लेच्छ मलयकेतु की मूर्खता ! जिसने इतना नहीं समझा कि-