पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१४६

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ठछा अङ्क १३१ मरे स्वामिहू नहिं तज्यौ, जिन निज नृप अनुराग । लोभ छाडि दै प्रान निज, करी शत्रु सो लाग ।। सोई राक्षस शत्रु सों, मिलि है यह अँधेर । इतनो सूझयो वाहि नहिं, दई दैव मति फेर ।। सो अब भी शत्रु के हाथ मे पड़के राक्षस बन में चला जायगा, पर चन्द्रगुप्त से सन्धि न करेगा। लोग झूठा कहे, यह अपयश हो, पर शत्रु की बात कौन सहेगा? (चारों ओर देख कर) हाँ! इसी प्रान्त मे देव नन्द रथ पर चढ़ कर फिरने आते थे। इतहि देव अभ्यास हित, सर सिज धनु सॅधान । रचत रहे भुव चित्र सम, रथ सुचक्र परिखानि ।। जह नृपगन सॅकित रहे, इत उत थमे लखात । सोइ भुव ऊजर भई, हगन लखी नहिं जात ।। हाय ! यह मन्द भाग्य अब कहाँ जाय ? ( चारों ओर देख कर ) चलो इस पुरानी बारी मे कुछ देर ठहर कर मित्र चन्दनदास का कुछ समाचार ले । (घूम कर आप ही ग्राप) अहा! पुरुषो की भाग्य से उन्नति अवनति की भी क्या क्या गति होती है कोई नहीं जानता। जिमि नव ससि कह सब लखत, निज २ करहि उठाय । तिमि नृप सब हम को रहे, लखत अनन्द बढ़ाय ।।. चाहत हे नृपगन सबै, जासु कृपा हग कोर । सो हम इत सॅकित चलत, मानहुँ कोऊ चोर ।। वा जिसके प्रसाद से यह सब था, जब वही नहीं है तो 'यह होईगा। (देख कर ) यह पुराना उद्यान कैसा भयानक हो रहा है।