पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१४७

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१३२ मुद्रा-राक्षस नसे बिपुल नृप कुल सरिस, बड़े बड़े गृह जाल । मित्र नास सों साधुजन, हिय सम सूखे ताल ।। तरुवर मे फलहीन जिमि, बिधि बिगरे सय रीति । तृन सो लोपीभूमि जिमि, मति लहि मूढ़ कुनीति ।। तीछन परसु प्रहार सो, कटे सरोबर गात । रोअत मिलि पिंडूक सम, ताके घाव लखात ।। दुखी जानि निज मित्र कह अहि मन लेत उसास । निज केंचुल मिस धरत हैं, फाहा तरु बन पास ।। तरुगन को सूख्यौ हियो, छिट्टे कीट सों गात । दुखी पत्र फल छाँह बिनु, मनु समान सव जात ।। तो तब तक हम इस शिला पर, जो भाग्यहीनो को सुलभ है, लेटें। (बैठ कर और कान दे कर सुन कर) अरे! यह शंख डंके से मिला हुआ नान्दी शब्द कहाँ हो रहा है ? अति ही तीखन होन सों फोरत स्रोता. कान । जब न समायो घरन मे तब इत कियो पयान ।। सॅख पटह धुनि सों मिल्यौ भारी मङ्गल नाद । निकस्यौ मनहुँ दिगन्त की, दूरी देखन स्वाद ॥, (कुछ सोच कर ) हाँ, जाना। यह मलयकेतु के पकड़े जाने पर राजकुल (रुक कर) मौर्यकुल को आनन्द देने को हो रहा है।

    • वृक्ष के खींढरे मे से जो शब्द निकलता है. वही मानो वृक्ष

रोते हैं और उन वृक्षों पर पेड़की बोलती है वह मानों रोने मे वृक्षो का साथ देती है।

  • जहाँ ऐसी उक्ति होती है वहाँ यह ध्वनि है कि मानो "पूर्व में

जो कहा था वह ठीक है” रुक कर अाग्रह से फिर कुछ और कह दिया । .