पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१५३

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१३८ मुद्रा-राक्षस समर साध तन पुलकित नित साथी मम कर को। रन मह बारहिं बार परिछ्यो जिन बल पर को। बिगत जलद नभ नील खड्ग यह रोस बढ़ाबत । मीत कष्ट सों दुखिहु मोहि रनहित उमगावत ॥ पुरुष-सेठ चन्दनदास के प्राण बचने का उपाय मैने सुना किन्तु ऐसे टेढ़े समय मे इसका परिणाम क्या होगा, यह मैं नहीं कह सकता ( राक्षस को देख कर पैर पर गिरता है ) आर्य ? क्या सुगृहीत नामधेय अमात्य राक्षस आपही है ? यह मेरा संदेह आप दूर कीजिए। राक्षस-भत कुल विनाश से दुखी और मित्र के नाश का कारण यथार्थ नामा अनार्य राक्षस मैं ही हूँ। पुरुष-(फिर पैर पर गिरता है ) धन्य है ! बड़ा ही आनन्द हुआ। आपने हमको आज कृतकृत्य किया। राक्षस-भद्र ! उठो। देर करने की कोई आवश्यकता नहीं जिष्णुदास से कहो कि राक्षस चन्दनदास को अभी छुड़ाता है (खङ्ग खींचे हुए 'समर साध' इत्यादि पढ़ता हुआ उधर उधर टहलता है) पुरुष-(पैर पर गिर कर) अमात्यचरण! प्रसन्न हों। मैं यह बिनती करता हूँ कि चन्द्रगुप्त दुष्ट ने-पहले शकटदास के बध की आज्ञा दी थी। फिर न जाने कौन शकटदास को छुड़ा कर उसको कहीं परदेश में भगा ले गया। आर्य शकटदास के वध में धोखा खाने से चन्द्रगुप्त ने क्रोध कर के प्रमादी समझ कर उन वधिकों ही को मार डाला। तबसे वधिक जिस किसी को बध स्थान में ले जाते है और मार्ग मे किसी को शस्त्र खींचे हुए