पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१५६

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छठा अङ्क १४१ नमस्कार है, जिस को मित्र उदासीन सभी एक से हैं क्योंकि- छोड़ि माँस भख मरन भय, जियहिं खाइ तृन घास । तिन गरीब मृग को करहिं निरदर्य ब्याधा नाश ।। (चारों ओर देखकर) अरे भाई जिष्णुदास । मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते ? हाय ऐसे समय कौन ठहर सकता है ? चं० दा०-(आँसू भर कर ) हाय ! यह मेरे सब मित्र बिचारे कुछ नहीं कर सकते, केवल रोते हैं और अपने को अर्कमण्य समझ शोक से सूखा सूखा मुह किए ऑसू भरी आँखो से एक टक मेरी ही ओर देखते चले आते हैं। दोनों चॉडाल-अजी चन्दनदास ! अब तुम फाँसी के स्थान पर आ चुके इससे कुटुम्ब को बिदा करो। चदा.-(स्त्री से ) अब तुम पुत्र को लेकर जाओ, क्योकि आगे तुम्हारे जाने की भूमि नहीं है। स्त्री-ऐसे समय में तो हम लोगों को विदा करना उचित ही है क्योकि आप परलोक में जाते है, कुछ परदेश नहीं जाते (रोती है)। चं० दा०-सुनो ! मै कुछ अपने दोष से नहीं मारा जाता, एक मित्र के हेतु मेरे प्राण जाते हैं, तो इस हर्प के स्थान पर क्यों रोती हो ? स्त्री-नाथ ! जो यह बात है तो कुटुम्ब को क्यों विदा करते हो चं० दा०-तो फिर तुम क्या कहती हो ? .