पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१५८

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सप्तम अङ्क २ चांडाल-पकड़ रे बज्रलोमक ! (दोनों चन्दनदास को पकडते है) स्त्री-लोगो बचाओ रे, बचाओ। (वेग से राक्षस अाता है) राक्षस-डगे मत, डरो मत, सुनो सुनो सैनापति ! चन्दनदास को मत मारना क्योंकि- नसत स्वामिकुल जिन लख्यौं, निज चख शत्रु समान । मित्र दुख हू मै धरयो, निलज होइ जिन प्रान ।। तुम सो हारि बिगारि सब, कढ़ी न जाकी सॉस । ता राक्षस के कण्ठ में, डारहु यह जम फॉस ।। चन्दनदास-( देख कर और आँखों मे श्रॉसू भर कर ) अमात्य ! यह क्या करते हो? राक्षस-मित्र, तुम्हारे सच्चरित्र का एक छोटा सा अनुकरण ।' चन्दनदास--अमात्य मेरा किया तो सब निष्फल होगया, पर आपने ऐसे समय यह साहस अनुचित किया। राक्षस-मित्र चन्दनदास | उराहना मत दो, सभी स्वार्थी हैं। (चाडाल से ) अजी ! तुम उस दुष्ट चाणक्य से कहो । दोनों चांडाल-क्या कहें ? राक्षस- जिन कलि मैं हू मित्र हित तृन सम छोड़े प्रान । जाके जस रवि सामुहे, शिवि जस दीप समान ।। जाको अति निर्मल चरित, दया आदि नित जानि । बौधहु सब लजित भये, परम शुद्ध जेहि मानि ।। ता पूजा के पात्र को, मारत तू धरि पाप । जाके हितु सो सत्रु तुव, आयो इत मे आए ।।