पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१६

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निर्वासन का । यह अन्तर इसलिए नहीं हुआ कि जीवसिद्ध साधु था, वरन् यथार्थ में अपराध की गरिमा में स्पष्ट अन्तर होने के कारण हुआ। दूत से जब- यह पूछा गया कि "तूने कैसे जाना कि क्षपणक मेरे शत्रुओं का पक्षपाती है।" तो दूत ने उत्तर दिया कि "उसने राक्षस मन्त्री के कहने से देव पर्वतेश्वर पर विषकन्या का प्रयोग किया।" इसमें अपराधी की दो स्थितियों हैं-एक, वह राक्षस का एजेंट है, स्वयं वह अपने कृत्य का उत्तरदाता नहीं । दूसरे उसका कार्य समाप्त हो चुका है अब उसको कोई शिकायत नहीं, उसका कार्य अनवरत नहीं पल रहा । उधर शकटदास और चन्दनदास की शत्रुता निरन्तर है। इसी कारण जीवसिद्ध का अपराध कम हुआ और शकट- दास और चन्दनदास का अधिक।

हाँ; नाटक में एक असावधानी तो यह है कि चाणक्य से एक स्थान पर तो यह कहलाया है कि मेरी बँधी हुई शिखा को खुलवाना चाहते हो, और बाद मे फिर यह भी कहलाया गया है कि अब प्रतिज्ञा पूर्ण हुई मैं शिखा बाँधता हूँ। यहाँ परस्पर विरोध है । दूसरे पर्वतेश्वर की मृत्यु के पश्चात् मलयकेतु का 'कुमार' सम्बोधन भी उचित नहीं प्रतीत होता । इसका परिहार सम्भवतः यह हो सकता है कि पर्वतेश्वर की हत्या हुई उसके उपरान्त मलयकेतु का विधिवत् राज्याभिषेक नहीं हुआ।

                           सत्येन्द्र, एम० ए०