पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१६०

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सप्तम अङ्क १४५ - सागर जिमि बहु रत्नमय, तिमि सब गुण की खानि । तोष होत नहिं देखि गुण; बैरी हू निज जानि ।। चाणक्य-( देख कर ) अरे ! यही अमात्य राक्षस है ? जिस महात्मा ने- बहु दुःख सों सोचत सदा, जागत रैन विहाय । मेरी मति अरु चन्द्र की, सैनहि दई थकाय ।।' (परदे से बाहर निकल कर ) अजी अजी अमात्य राक्षस ! मैं विष्णुगुप्त आपको दण्डवत करता हूँ। (पैर । (पैर छूता है) राक्षस-(अाप ही आप ) अब मुझे अमात्य कहना तो केवल मुंह चिढ़ाना है । (प्रगट ) अजी विष्णुगुप्त ! मैं चांडालो से छू गया हूँ इससे मुझे मत छुओ। चाणक्य-अमात्य राक्षस ! वह वपाक नहीं है, वह आपका जाना सुना सिद्धार्थक नामी रांजपुरुष है और दूसरा भी समिद्धार्थक नामी राजपुरुष ही है; और इन्हीं दोनो द्वारा विश्वास उत्पन्न करके उस दिन शकटदास को धोखा देकर मैंने वह पत्र लिखवाया था। राक्षस-(अॉप ही श्राप ) अहा! बहुत अच्छा हुआ कि मेरा शकटदास पर से सन्देह दूर हो गया। चाणक्य-बहुत कहाँ तक कहूँ- वे सब भद्रभटादि वह, सिद्धार्थक वह लेख । वह भदन्त वह भूषणहु, वह नट भारत भेख ॥ वह दुख चन्दनदास को, जो कछु दियो दिखाय। सो सब मम (लजा से कुंछ संकुच कर ) सो सब राजा चन्द्रको, तुमसो मिलन उपाय ।। देखिए, यह राजा भी आपसे मिलने आप ही आते हैं। >