पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१६२

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सप्तम अङ्क राक्षस-(श्राप ही आप ) देखो यह चाणक्य का सिखाया पढ़ाया मुझसे कैसी सेवको को सी बात करता है ! नहीं नहीं, यह आप ही विनीति है। अहा! देखो, चन्द्रगुप्त पर डाह के बदले उलटा अनुराग होता है। चाणक्य सब स्थान पर यशस्वी है क्योकि- पाइ स्वामि सतपात्र जो, मन्त्री मूरख होइ । तोहू पावे लाभ जस, इत तौ पण्डित दोइ ।। मूरख स्वामी लहि गिरे, चतुर सचिव हू हारि। नदी तीर तरु जिमि नसत, जारनह्र लहि वारि।। चाणक्य-क्यों अमात्य राक्षस! आप क्या चन्दनदास के प्राण यचाया चाहते है। राक्षस-इसमे क्या सन्देह है ? चाणक्य-पर अमात्य आप शस्त्र । ग्रहण नहीं करते इससे सन्देह होता है कि आपने अभी राजा पर अनुग्रह नहीं किया, इससे जो सच ही चन्दनदास के प्राण बचाया चाहते हो तो यह शस्त्र लीजिये। राक्षस-सुनो विष्णुगुप्त ! ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योकि हम लोग इस योग्य नहीं; विशेष कर के जब तक तुम शस्त्र ग्रहण किए हो तब तक हमारे शस्त्र ग्रहण करने का क्या काम है। चाणक्य - भला अमात्य ! आपने यह कहाँ से निकाला कि हम योग्य है और आप अयोग्य है ? क्योंकि देखिये- रहत लगामहि कसे अश्व की पीठ न छोड़त । खान पान असनान भोग तजि मुख नहिं मोड़त ।। छूटे सब सुख साज नींद नहिं आवत नयनन । निसि दिन चौंकत रहत वीर सब भय धरि निज मन ।। - >