पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१६३

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१४२ मुद्रा-राक्षस - वह हौदन सों सय छन कस्यो नृप गजगन अवरेखिए । रिपुदर्प दूर कर अति प्रथल निज महात्मयल देखिए । वा इन बातों से क्या? आपके शस्त्र ग्रहण किए बिना तो चन्दनदास यचता भी नहीं। राक्षस--(शाप ही प्राप) नन्द नेह छूट्यौ नहीं, दास भये अरि साथ । ते तरु कैसे काटि हैं, जे पाले निज हाथ ।। कैसे करिहै मित्र पै, हम निज कर सों घात । अहोभाग्य गति अति प्रपल मोहि कछु जानि न जात ॥ (प्रकाश ) अच्छा विष्णुगुप्त ! सेंगाओ खग "नमस्स- र्च कार्यप्रतिपत्तिहेतवे सुहृत्स्नेहाय” देखो मै उप- स्थत हूँ। चाणक्य-राक्षस को खड्ग देकर हर्ष से ) राजन् वृषल ! बधाई है बधाई है ! अब अमात्य राक्षस ने तुम पर अनुग्रह किया । अब तुम्हारी दिन दिन बढ़ती ही है। राजा यह सब आपकी कृपा का फल है। (पुरुष आता है) पुरुष-जय हो महाराज की, जय हो महाराज ! भद्रभट भागु- रायणादिक मलयकेतु को हाथ पैर बाँध कर लाये हैं और द्वार पर खड़े हैं इसमें महाराज की क्या आज्ञा होती है। चणक्य-हाँ, सुना । अजी! अमात्य राक्षस से निवेदन करो अब सब काम वही करेंगे। क्षस-(आप ही आप ) कैसे अपने वश में करके मुझी से कह लाता है। क्या करें ? (प्रकाश) महाराज चन्द्रगुप्त 4