पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१६७

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मैं १५२ मुद्रा-राक्षस जग में घर की फूट बुरी। घर की फूटहि सों विनसाई सुबरन लंकपुरी ॥ फूटहि सों सब कौरव नासे भारत युद्ध भयो । जाको घाटो या भारत में अब लौं नहिं पुरयो॥ फूटहि सों जयचन्द बुलायो जवनन भारत धाम । जाको फल अब लौँ भोगत सब अारज होइ गुलाम ॥ फूटहि सों नवनन्द बिनासे गयो मगध को राज । चन्द्रगुप्त को नासन चाह्यौ आपु नसे सह साज ॥ जो जग मैं धनमान और बल अपुनो राखन होय । तो अपने घर भूलेहु फूट करौ मति कोय ॥३॥ (दूसरे अङ्क की समाप्ति और तीसरे अङ्क के प्रारम्भ में ) जग मैं तेई चतुर कहावें । जे सब विधि अपने कारज को नीकी भाँति बनावें ॥ पढ्यो लिख्यौ किन होइ जुपै नहिं कारज साधन जानै। ताही को मूरख या जग मैं सब कोऊ अनुमान ।। छल में पातक होत जदपि यह शास्त्रन मैं बहु भायौ । पै हारि सौं- छल किए दोष नहिं मुनियन यहै बतायौ ॥४॥ ( तीसरे अङ्क की समाप्ति और चतुर्थ अङ्क के प्रारम्भ में) ठुमरी-तिन को न कळू कबहूँ विगरे, गुरु लोगन को कहनो जे करें। जिनको गुरु पन्थ दिखावत हैं ते कुपन्थ पै भूलि न पॉच धरें। जिन को गुरु रच्छत आप रहें ते बिगारे न बरिन के विगरें। गुरु को उपदेश सुनौ सबही, जग कारज जासों सबै समरें॥५॥ (चतुर्थ अङ्क की समाति और पंचम अङ्क के प्रारम्भ में ) पूरबी-घरि मुंरख मित्र मिताई, फिर पछतैहो रे भाई। अन्त दशा खैहो सिर धुनिहौ रहिहो सबै गॅबाई ॥ मूरख जो कछु हितहु करै तामैं अन्ते चुराई। उलटो उलटो काज करत सय दैहै अन्त नसाई । लाख करौ हित मूरख सों पै ताहि न कछु 1 r