पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ४ ]

मेरी क्रोधाग्नि ने नीति रूप पवन से तीव्र होकर मन्त्री रूप वृक्षों को पुरवासियों को छोड़ के जला कर नन्दवंश रूप बाँसों के बन को समूल नष्ट कर दिया। उससे रिपुरमणी रूप दिशा का मुख रूप चन्द्रमा धुँँधला हो गया है। मेरी क्रोधाग्नि शत्रु रूप इंधन न रहने के कारण अब शान्त हो गई है।

पृष्ठ ४५―तन्त्र मुक्ति.....उपचार।

सर्प पक्ष में:―

जड़ी बूटी तथा तन्त्र मन्त्र जो लोग जानते हैं और विचार कर मण्डल (घेरा जिसमें से सर्प बाहर न जाने पावे) बनाते हैं। वही लोग सर्प का उपचार करते हैं। राजा पक्ष में:―जो राज्य प्रबन्ध तथा राजा के प्रसन्न रखने की युक्ति भली भॉति जानते हैं, और जो शत्रु, मित्र उदासीन आदि को समझ कर राज्य का स्थापन करते हैं तथा मंत्र (सलाह) को गुप्त रखते हैं अथवा सेना का मण्डल ठीक करते हैं, वही लोग रोजा को प्रसन्न रखें सकते है।

पृष्ठ ४६―जिस प्रकार गुण और नीति के बल से जो यादव- गण अपने शत्रुओं पर विजय पा चुके थे वे लोग प्रवल होनहार के कारण सब के सब नष्ट हो गये। उसी प्रकार यह बड़ा नन्द- कुल भी समूल नाश हो गया इसी सोच में मुझे दिन रात नित्य जागते ही बीतते हैं। मुझे मेरे भाग्य के जो आश्रयहीन विचित्र चित्र हैं, दिखाई देते हैं।

भावार्थ―जिस प्रकार दीवार पर रङ्ग बिरंगे चित्र बनाए जा सकते हैं। जो यदि दीवार का आश्रय नहीं हो तो चित्र नहीं बन सकते। अर्थात् नन्दकुल की रक्षा का कोई भी आधार होता तो अच्छा होता। आश्रय न होने पर नन्द वंश के उद्धार के उपाय केवन खयाली चित्र हैं।