पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/२

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भूमिका
साहित्य में नाटक

काव्य के भेद––संस्कृत के प्राचार्यों ने अपने शास्त्र में साहित्य के लिये 'काव्य' शब्द का प्रयोग किया है। आजकल हम 'काव्य' से मात्र वही अर्थ ग्रहण करते हैं जो अँगरेजी के 'पोइट्री' शब्द से प्रकट होता है। संस्कृत में काव्य का अर्थ विशद था। उसमें गद्य-पद्य-नाटक सभी आ जाते थे। इस काव्य के दो भेद थे, एक दृश्य-काव्य दूसरा श्रव्य-काव्य। जो काव्य पढ़ा-सुना जाता था वह श्रव्य था। 'वाल्मीकि की रामायण' श्रव्यकाव्य है। किन्तु वह काव्य जो देखा भी जा सके वह दृश्य-काव्य है। आज जिसे हम नाटक कहते हैं वह संस्कृत के प्राचार्यों की दृष्टि से दृश्य-काव्य था। नाटक का अभिनय तो दृश्य ही होता है, उसके सम्वाद, गीत तथा छन्द श्रव्य होते हैं। फलतः दृश्य-काव्य का स्थान ऊँचा माना जाता है, उसमें श्रव्य के गुण भी रहते हैं, दृश्य होने की उसमें विशेषता होती है।

दृश्य काव्य के भेद––दृश्य-काव्य के दो भेद माने गये हैं। १ रूपक, २ उपरूपक। रूपक और उपरूपक के कितने ही भेद किये गये हैं। हमे उन भेद-प्रभेदों को समझने की यहाँ विशेष आवश्यकता नहीं। रूपक के दस भेदों में से एक प्रमुख