पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुद्रा-राक्षस कि यह सिंह अवश्य किसी ऐसे पदार्थ का बना होगा जो या तो पानी से या आग से गल-जाय, यह सोच कर पहिले उसने उस पिञ्जड़े को पानी के कुएडा मे रक्खा और जब वह पानी से न गला तो उसपिञ्जड़े के चारों ओर आगे जलवाई, जिसकी गर्मी से वह सिंह, जो लाह और राल का बना था, गल गया। एक बेर ऐसे ही किसी बादशाह ने एक अँगूठी में दहकती हुई आगएक

  • महकती आग की कथा-"जरासन्धमहाकाव्य" में लिखा है कि

जरासन्ध ने उग्रसेन के पास अंगीठी भेजी थी, शायद उसी से यह कथा निकाली गई हो, कौन जाने । सर्वया-रूप की रूपनिधान अनूप अँगीठी नई गढ़ि मोल मॅगाई । - ता मधि पावकयुंजधस्यो गिरिधारन जामें प्रभा अधिकाई ।। तेज सो ताके लजाई भई रज में मिली प्रासु-सबै रजताई। मानो प्रवाल को थाल बनाय कै लाल की रास बिसाल लगाई ॥१॥ हॉक के पावक दूत के हाथ दै बात कही इहि भाति बुझाय के। भोज भुषाल समा मह सन्मुख राखि कै यों कहियो सिर नाय कै । याहि पठायो जरासुत नै अवलोकहु नीके अधीरज लाय है। पुत्र खपाय कै नातिन पाय के जोहो जै पाय के कौन उपाय कै ।।२।। दोहा-सुनत चार तिहि हाथ लै, गयो भैम दरवार ! वासव ऐसे कैक सब, जहँ बैठे सरदार ||३|| अडिल्ल-जायजरासुतदूतभैमपतिपदपस्यौ । देखिजराऊजगहहियेसभ्रमभरयो जगतजरावनद्रव्यपातमागे धरयो । सोच जराह्य अभवहालवरननकरयो॥४॥ सुनिविहंसेजदुबीरजीतकीचायसों । हसिबोले गोविंद कहहू यह रायसों। उचितससुरपन कीन क्षत्रियुलन्यायसोंचही दमाद सहाय सुताकी हायसों!|५|| सोरटाइम कहि द्रुत गहि चाप, आप श्राप सिखि में दियो । तुरतहि गयो टुझात, ज्ञान पाय मन भ्रात जिमि ||६|| विदा कियो हर दून, उर में सर को अङ्क करि निरखि दरथ पूत, सबन सहित कोप्यो अतिहि ||७|| । 4 ?