पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/३४

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महाकवि विशाखदत्त का बनाया

मुद्रा-राक्षस नाटक

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स्थान रङ्गभूमि

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(रङ्गशाला में नान्दी मङ्गलपाठ करता है।)

भरित नेह-नव-चीर नित, बरमत सुरस अथोर । जयति अपूरब घन कीऊ, लखि नाचत मन मोर ॥१॥

कौन है सीसपै' 'चन्द्रकला' कहा याको है नाम यही त्रिपुरारी।
'हॉ यही नाम है भूल गई किमि जानत हू तुम मान पियारी।।'
नारिहि पूछत्त चन्द्रहि नाहिं कहै विजया जदि चन्द्र लारी ।
यो गिरिजै छलिगंग छिपावत ईस हरौ सय पीर तुम्हारी ।।२।।
पाद प्रहार सो जाइ पताल न भूमि सबै तनु बोझ के मारे ।
हाथ नचाइवे सो नभ में 'इत के उन टूटि परै नहिं तारे।।
देखन सो जरि जाहि न- लोक, न खोलत नैन कृपा उर धारे।
थलके बिनु कष्ट सों नाचत शर्व हरो दुःख सर्व तुम्हारे ।

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  • सस्कृत का मङ्गलाचण:-

धन्या केयं स्थिता ते शिरसि शशिकला, किन्नु नामैतदस्याः
नामैवास्यास्तदेतत् परिचितमपि ते विस्मृतं कस्य हेतोः ।।
नारी पृच्छामि नेन्दुः कथयतु विजया न प्रमाण यदीन्दु-
"च्या निझोतुमिच्छोरिति सुरसरितं शाव्यमव्याद्विभोर्वः ।।३।।

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