पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/३६

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प्रस्तावना न नाटक खेलो। सच है, जो सभा काव्य के गुण और दोष को सय भॉति समझती है, उसके सामने खेलने में मेरा भी चित्त सन्तुष्ट होता है। उपजैं आछे खेत में, मूरखहू के धान । सघन होन में धान के, चहिय न गुनी किसान ||४|| तो अब मैं घर से सुघर घरनी को बुला कर कुछ गाने बजाने का ढङ्ग जमाऊँ (घूम कर ) यही मेरा घर है, चलू । (आगे बढ़ कर ) अहा ! श्राज तो मेरे घर में कोई उत्सव जान पड़ता है, क्योंकि घर बाले सब अपने अपने काम में चूर हो रहे हैं। . पीसत कोऊ सुगन्ध कोऊ जल भरि कै लावत । कोऊ थैठि के रङ्ग रङ्ग की माल बनावत ।। कहुँ तिय गॅन हुँकार सहिय अति श्रवन सोहावत । होत मुसल को शब्द सुखद जियको सुनि भावत ॥५॥ - जो हो घर से स्त्री को बुलाकर पूछ लेता हूँ (नेपथ्य की ओर ) री गुनवारी सब उपाय की जाननवारी। घर की- राखनवारी सय कछु साधनवारी ॥ मो गृह नीति स्वरूप काज सब करन सॅवारी... वेगि आजरी नटी विलम्ब न कुरु सुन प्यारी ॥ ६॥ (नटी आती है) नटी-आर्यपुत्र! मैं आई, अनुग्रहपूर्वक कुछ प्राज्ञा दीजिये। सूत्र--प्यारी, आज्ञा पीछे दी जायगी, पहिले यह बता कि आज ब्राह्मणों का न्यौता करके तुमने इस इस कुटुम्ब के लोगों पर क्यों जासंस्कृत मुहाबिरे में पति को स्त्रिीया प्रार्थपुत्र कह कर पुकारती हैं।