पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/३८

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प्रस्तावना बल सों करि हैं पास कह - (नेपथ्य में) हैं ! मेरे जीते चन्द्र को कौन बल से ग्रस सकता है १ सूत्र- जेहि बुध रच्छत आपणा १ सूर्य के अस्त हो जाने पर जो रात्रि में अन्धकार होता है यही पृथ्वी की छाया है और पृथ्वी गोलाकार है और सूर्य से छोटी है इसलिये उसकी छाया सूच्याकार (शंकु के श्राकार) की होती है और यह अाकाश में चन्द्र के भ्रमणमार्ग को लाघ के बहुत दूर तक सदा सूर्य से छः राशि के अन्तर पर रहती है और पूर्णिमा के अन्त में चन्द्रमा भी, सूर्य से छः राशि के अन्तर पर रहता है। इसलिए जिस पूर्णिमा में चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में आ जाता है अर्थात् पृथ्वी की छाया चन्द्रमा के विम्ब पर पड़ती है तभी वह चन्द्र का ग्रहण कहलाता है और छाया जो चन्द्रविम्ब पर देख पड़ती है वही ग्रास कहलाता है । और राहु नामक एक दैत्य प्रसिद्ध है वह चन्द्र ग्रहण काल में पृथ्वी की छाया में प्रवेश करके चन्द्र को ओर प्रजा को पोड़ा देता है, इसी कारण से लोक मे राहुकृत ग्रहण कहलाता है और उस काल में स्नान, दान, जप, इत्यादि करने से वह राहुकृत पीय दूर होती है और बहुत पुण्य होता है। २ पूर्णिमा में चन्द्रग्रहण होने का कारण ऊपर लिखा ही है और पूर्णिमा में चन्द्रविम्ब भी सम्पूर्ण उजवल होता है तभी चन्द्रग्रहण होता है। ३ जब कि पूर्णिमा के दिन चन्द्रग्रहण होता है, इससे पूर्णिमा में चन्द्रमा का और बुध का योग-कभी नहीं होता (क्योंकि बुध सर्वदा सूर्य के पास रहता है और पूर्णिमा के दिन सूर्य चन्द्रमा से छः राशि के अन्तर पर रहता है, इसलिये बुध भी उस दिन चन्द्र से दूर ही रहता है), यों बुध के योग में चन्द्रग्रहण कभी नहीं हो सकता । इति शिवम् । संवत् १६३७ ज्येष्ठ शुक्ल १५ मंगल दिने, मंगलं मंगले भूयात् ।