पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/४

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( ३ )

जयलौं रहै सुख राज को तबलौं सबै सेवा करैं ।
पुनिराज बिगड़े कौन स्वामी तनिक नहिं चित में धरै।।
जे विपति हू में पालि पूरव प्रीति काज संवारहीं ।
ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं संसय नहीं ।

इसी से तो हम लोग इतना यत्न करके तुम्हें मिलाना चाहते हैं कि तुम अनुग्रह करके चन्द्रगुप्त के मन्त्री बनो ।"- ये शब्द हैं जो प्रथम अंक में आधिकारिक वस्तु'का बीज वपन करते हैं । जय राक्षस मंत्रित्व स्वीकार कर लेता है, नाटक समाप्त हो जाता है । अत: चाणक्य और चन्द्रगुप्त की वह कथा जो राक्षस को वश करने के उद्योग से युक्त है आधिकारिक वस्तु है। प्रासंगिक वस्तु गौण होती है और आधिकारिक वस्तु की सहा- यता के लिए आती है । यह आधिकारिक वस्तु के कुछ आगे बढ़ जाने पर खड़ी होती है ओर श्राधिकारिक वस्तु में फलागम से पूर्व ही विसर्जित हो जाती है । इस दृष्टि से मुद्राराक्षस में 'मलयकेतु' सम्बन्धी वस्तु प्रासंगिक है । प्रासंगिक वस्तु का नायकमलयकेतु है। उसकी कब राक्षस और चाणक्य की आधि- कारिक कथा की सहायक है।

मुद्राराक्षस की कथा-वस्तु-चन्द्रगुप्त सिंहासनासीन हो चुका है। राक्षस ने चन्द्रगुप्त को मारने के लिए विषकन्या भेजी थी, उसके प्रयोग से चाणक्य पर्वतक को मार चुका है। 'अब चन्द्रगुप्त का राज्य एक संकट से मुक्त हो चुका है। पर पर्वतक का पुत्र मलयकेतु भाग कर राक्षस से मिला है। राक्षस ने अन्य कई राजाओं को सहायता के लिए तय्यार कर लिया है। चाणक्य ने भी प्रबन्ध कर रखा है । उसने मलयकेतु के साथ भागुरायण को भेज दिया है । भागुरायण मलयकेतु का विश्वासपात्र बन गया है। चाणक्य के सिखाये भद्रभट आदि