पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/४४

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प्रथम अङ्क सो यद्यपि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूँ, तो भी चन्द्रगुप्त के हेतु शस्त्र अब भी धारण करता हूँ। देखो मैंने- नवनन्दन को मूल सहित खोद्यो छन भर में। चन्द्रगुप्त में श्री राखी नलिनी जिमि 'सर क्रोध प्रीति 'सों एक नासि के एक बसायो। शत्रु मित्र को प्रगट सबन फल लै दिखलायो॥११॥ अथवा जब तक राक्षस नही पकड़ा जाता तब तक नन्दों के मारने से क्या और चन्द्रगुप्त को राज्य मिलने से ही क्या ? (कुछ सोच कर ) अहा ! राक्षस को नन्दवंश में कैसी हद भक्ति है ! जब तक नन्दवंश का कोई भी जीता रहेगा तब तक वह कभी शुद्ध का मन्त्री बनना स्वीकार न करेगा इससे उसके पकड़ने में हम लोगों को निरुद्यम रहना अच्छा नहीं। यही समझ कर तो नन्दवंश का सर्वार्थसिद्ध विचारा तपोवन में चला गया तो भी हमने मार डाला। देखो राक्षस मलयकेतु को मिला कर हमारे बिगाड़ने में यन करता ही जाता है (आकाश में देखकर ) याह राक्षस मन्त्री वाह ! क्यों न हो! वाह मन्त्रियों में वृहस्पति के समान याह ! तू धन्य है क्योंकि:- जब लौ रहै सुख राज को तब लौं सबै सेवा करें पुनि राज बिगड़े कौन स्वामी तनिक नहीं चित में धरै। जे विपतिहू मे पालि पूरव प्रीति काज सँवारही। ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं संसय नहीं ॥१॥ इसी से तो हम लोग इतना यत्न करके तुम्हें मिलाना चाहते . हैं कि. तुम । अनुग्रह करके चन्द्रगुप्त के मन्त्री बनो, क्योंकि- मूरख कातर स्वामिभक्त कछु काम न आवै । पण्डित हू बिन भक्ति काज कछु नहीं बनायै ।।