पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/४५

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मुद्रा-राक्षस निज स्वारथ की प्रीति करें ते सब जिमि नारी। बुक्ति भक्ति दोउ होय तबै सेवक सुखकारी ॥१६॥ सो मैं भी इस विषय मे कुछ सोता नहीं हूँ, यथाशक्ति उसी के मिलाने का यत्न करता रहता हूँ। देखो, पर्वतक को 'चाणक्य ने मारा यह अपवाद न होगा, क्योकि सब जानते हैं कि चन्द्रगुप्त और पर्वतक मेरे मित्र है तो मैं पर्वतक' को मार कर चन्द्रगुप्त का पक्ष निर्मल कर दूगा ऐसी शंका कोई न करेगा, सब यही कहेंगे कि राक्षस ने विषकन्या-प्रयोग करके चाणक्य के मित्र पर्वतक को मार डाला। पर एकान्त में राक्षम ने मलयकेतु के जी में यह निश्चय- करा दिया है कि तेरे पिता को मैंने नहीं मारा चाणक्य ही ने मारा, इससे मलयकेतु मुझ से बिगड़ रहा है। जो हो, 'यदि यह राक्षस लड़ाई करने को उद्यत होगा तो भी- पकड़ा जायगा। पर जो हम संलयकेतु को पकड़ें तो लोग निश्चय कर लेंगे कि अवश्य चाणक्य हो ने अपने मित्र इसके पिता को मारा और अब, मित्रपुत्र अर्थात् मलयकेतु को मारना चाहता है। और भी, अनेक देश की भाषा, पहिरावा, चाल-व्यवहार जानने वाले अनेक वेषधारी बहुत से दूत मैंने इसी हेतु चारों ओर भेज रकले हैं कि वे भेद लेते रहें कि कौन हम लोगों से शत्रुता रखता है कौन मित्र है। और कुसुमपुर निवासी नन्दु-के मन्त्री और मम्बन्धियों के ठोक-ठीक वृत्तान्त का अन्वेषण हो रहा है, वैसे ही भद्रभटादिको को बड़े-बड़े पद देकर चन्द्रगुप्त के पास रख दिया है और भक्ति की परीक्षा लेकर बहुत से अप्रमादी पुरुष भी शत्रु से रक्षा करने को नियत कर दिए हैं। वैसे ही मेग सहपाठी भित्र विधा शर्मा नामक ब्राह्मण को शुक्रनीति और चौंसदों कला से ज्योतिष शास्त्र में बड़ा, प्रवीणं है, उसे