पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/५१

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३४ सुद्राराक्षस (प्रतिहारी आती है ) प्रतिहारी-जय हो महाराज की जय हो। चाणक्य-(हर्ष से आप ही आप ) वाह वाह कैसा सगुन हुआ कि कार्यारम्भ में ही जय शब्द सुनाई पड़ा। (प्रकाश) कहो शोणोत्तरा क्यों आई हो? प्रक-महाराज ! राजा चन्द्रगुप्त ने प्रणाम कहा है और पूछा है कि मैं पर्वतेश्वर की क्रिया किया चाहता हूँ इससे आपकी आज्ञा हो तो उनके पहिरे श्राभरणों को पण्डित ब्राह्मणों को दू। चाणक्य-(हर्ष से आप ही आप) वाह चन्द्रगुप्त वाह, क्यों न हो, मेरे जी की यात सोच कर सँदेशा कहला भेजा है, प्रकाश ) शोणोत्तरा! चन्द्रगुप्त से कहो कि "वाह ! बेटा वाह ! क्यों न हो बहुत अच्छा विचार किया, तुम व्यवहार मे बड़े ही चतुर हो इससे जो सोचा है सो करो, पर पर्वतेश्वर के पहिरे हुए श्राभरण गुणवान् ब्राह्मणों को देने चाहिए, इस से ब्राह्मण मैं चुन के भेजूंगा।" प्र०-जा आज्ञा महाराज ! (जाती है)। चाणक्य-शारङ्गरव ! विश्वावसु आदि तीनों भाइयों से कहो कि जा कर चन्द्रगुप्त से श्राभरण ले कर मुझ से मिले। शिष्य-जो आज्ञा (जाता है)। चाणक्य--(श्राप ही प्राप) पीछे तो यह लिखें पर पहिले क्या लिखे ( सोच कर ) अहा ! दूतों के मुख से ज्ञात हुश्रा है कि उस म्लेयराज सेना में से प्रधान पाँच राजा परम भक्ति से राक्षस की सेवा करते हैं। ! ।