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मुद्रा-राक्षस

चाणक्य--(लेकर देखता है ) वाह कैसे सुन्दर अक्षर हैं ! (पढ़ कर ) बेटा, इस पर यह मोहर कर दो।

सि०--जो आज्ञा ( मोहर करके ) महाराज, इस पर मोहर हो गई, अब और कहिए क्या आज्ञा है ?

चाणक्य--वेटा जी ! हम तुम्हें एक अपने निज के काम में भेजा चाहते है।

सि--(हर्ष से ) महाराज, यह तो आपकी कृपा है, कहिये, यह दास आपके कौन काम आ सकता है ?

चाणक्य--सुनो, पहिले जहाँ सूली दी जाती है वहाँ जाकर फॉसी देने वालों को दाहिनी ऑख दया कर समझा देना और जब वे तेरी बात समझ कर डर से इधर उधर भाग जाये तब तुम शकटदास को लेकर राक्षस मन्त्री के पास चले जाना। वह अपने मित्र के प्राण बचाने से तुम पर बड़ा प्रसन्न होगा और तुम्हें पारि- तोषिक देगा, तुम उसको लेकर कुछ दिनों तक राक्षस ही के पास रहना और जव और भी लोग पहुंच जायँ तय यह काम करना ( कान में समाचर कहता है)।

सि०--जो आज्ञा महाराज ।

चाणक्य--शारंगरव! शारंगरव!

शिष्य--(आकर) आज्ञा गुरुजी ?,

चाणक्य--कालपाशिक, और दण्डपाशिक से यह कह दो कि' चन्द्रगुप्त आज्ञा करता है कि जीवसिद्धि क्षपणक ने राक्षस के कहने से विषकन्या का प्रयोग करके


  • चाण्डालों को पहले से समझा दिया था कि जो आदमी दाहिनी

आँख दवाये उसको हमारा मनुष्य समझ कर तुम चटपट हट जाना।{{श्रेणी:मुद्राराक्षस नाटक]]