पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/५६

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प्रथम अंक्क

चन्दन-(कान पर हाथ रख कर) राम ! राम ! शरद ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा की भांति शोभित चन्द्रगुप्त को देख कर कौन नहीं प्रसन्न होता?

चाणक्य-जो प्रजा ऐसी प्रसन्न है तो राजा भी प्रजा से कुछ अपना भला चाहते हैं।

चन्दन०-महाराज ! जो आज्ञा, मुमसे कौन और कितनी वस्तु चाहते हैं ?

चाणक्य -सुनिये साह जी ! यह नन्द का राज नहीं है, चन्द्रगुप्त का राज्य है, धन से प्रसन्न होने वाला तो वह लालची नन्द ही था, चन्द्रगुप्त तो तुम्हारे ही भले से प्रसन्न होता है।

चन्दन-(हर्ष से ) महाराज, यह तो आपकी कृपा है।

चाणक्य-पर यह तो मुझसे पूछिये कि वह भला किस प्रकार से होगा?

चन्दन०- कृपा करके कहिये।

चाणक्य०-सौ बात की एक बात यह है कि राजा के विरुद्ध कामों को छोड़ो।

चन्दन०-महाराज! वह कौन अभागा है जिसे आपराजविरोधी समझते हैं?

चाणक्य - उसमें पहिले तो तुम्ही हो।

चन्दन-(कान पर हाथ रख कर ) राम ! राम! राम! भला तिनके से और अग्नि से कैसा विरोध ।

चाणक्य - विरोध यही है कि तुमने राजा के शत्रु, राक्षस मन्त्री का कुटुम्ब-अब तक घर में रख छोड़ा है।