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मुद्रा-राक्षस

चन्दन०-महाराज ! यह किसी दुष्ट ने आप से झूठ कह दिया है।

चाणक्य-सेठ जी! डरो मत, राजा के भय से पुराने राजा के सेवक लोग अपने मित्रों के पास विना चाहे भी कुटुम्ब छोड़ कर भाग जाते हैं, इससे इसके छिपाने ही में दोष होगा।

चन्दन०-महाराज! ठीक है, पहिले मेरे घर पर राक्षस मन्त्री का कुटुम्ब था।

चाणक्य पहिले तो कहा कि किसी ने मूंठ कहा है। अब कहते हो, था, यह गबड़े की बात कैमी ?

चन्दन-महाराज! इतना ही मुझसे बातों में फेर पड़ गया।

चाणक्य-सुनो, चन्द्रगुप्त के राज्य में छल का विचार नहीं होता, इससे राक्षस का कुटुम्ब दो, तो तुम सच्चे हो जाओगे।

चन्दन०-महाराज! मैं कहता हूँ न, पहिले राक्षस का कुटुम्ब या

चाणक्य-तो अब कहाँ गया ?

चन्दन ०-न जाने कहाँ गया।

चाणक्य-(हँस कर ) सुनो सेठ जी ! तुम क्या नहीं जानते कि साँप तो सिर पर बूटी पहाड़ पर। और जैसा

चाणक्य ने नन्द को (इतना कह कर लाज से चुप रह जाता है)।

चन्दन०-(आप ही आप)

प्रिया दूर घन गरजही, अहो दुःख अति घोर!

औषधि दूर हिमाद्रि पै, सिर पै सर्प कठोर ॥

चाणक्य - चन्द्रगुप्त को अब राक्षस मन्त्री राज पर से उठा देगा यह आशा छोड़ो, क्योंकि देखो-