पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/५८

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प्रथम अक्क

नृप नन्दुः जीवत नीतिबल सों, मत्ति रही जिन की भली। ते “वक्रनासादिक" सचिव नहिं, थिर सके करि नसि चली सो श्री सिमिटि अब प्राय लिपटी, चन्द्रगुप्त नरेश सों। तेहि दूर को करि सकै चॉदनि, छुटत कहुँ राकेस सो ? ? और भी

"सदा दन्ति के कुम्भ को" इत्यादि फिर से पढ़ता है।

चन्दन०--(आप ही-आप ) अब तुझको सय कहना फबता है। (नैपथ्य में ) हटो हटो-

चाणक्य--शारंगरव ! यह क्या कोलाहल है देख तो?

शिष्य--जो आजा (बाहर जाकर फिर आकर) महाराज राजा चन्द्रगुप्त की आज्ञा से राजद्वेषी जीवसिद्धि क्षपणक निरादर पूर्वक नगर से निकाला जाता है।

चाणक्य--क्षपणक ! हा! हा! अथवा राजविरोध का फल भोगे । सुनो चन्दनदास ! देखो राजा अपने द्वेषियों को कैसा कड़ा दर देता है, मै तुम्हारे भले की कहता हूँ, सुनो और राक्षस का कुटुम्ब देकर जन्म भर राजा की कृपा से सुख भोगो।

चन्दन०--महाराज ! मेरे घर राक्षस मन्त्री का कुटुम्ब नहीं है।

(नेपथ्य मे कलकल होता है)

चाणक्य--शारंगरव ! देख तो यह क्या कलकल होता है ?

शिष्य--जो आज्ञा (बाहर जाकर फिर लाता है ) महाराज! राजा की आज्ञा से राजद्वेषी शकटदास कायस्थ को सूली देने ले जाते हैं।

चाणक्य--राजविरोध का फल भोगे। देखो सेठ जी! राजा अपने विरोधियों को कैसा कड़ा दण्ड देता है, इससे