पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/६०

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प्रथम अड़्क

चन्दन॰---लीजिए महाराज! यह मैं चला (उठ कर चलता) (आप ही आप) अहा! मैं धन्य हूँ कि मित्र के हेतु मेरे प्राण जाते हैं, अपने हेतु तो सभी मरते हैं।

(दोनों बाहर जाते हैं)

चाणक्य---(हर्ष से) अब ले लिया है राक्षस को, क्योंकि:-

जिमि इन तृन सम प्रान तजि, कियो मित्र को त्रान।
तिमि सोहू निज मित्र अरु, कुल रखि हैं दै प्रान॥

(नेपथ्य में कलकल)

चाणक्य---शारंगरव!

शिष्य---(आकर) आज्ञा गुरुजी?

चाणक्य---देख तो यह कैसी भीड़ है?

शिष्य---(बाहर जाकर फिर आश्चर्य से आकर) महाराज! शकटदास को सूली पर से उतार कर सिद्धार्थक लेकर भाग गया

चाणक्य---(आप ही आप) वाह सिद्धार्थक! काम का आरम्भ तो किया (प्रकाश) हैं क्या ले गया? (क्रोध से) बेटा! दौड़ कर भागुरायण से कहो कि उसको पकड़े।

शिष्य---(बाहर जाकर आता है) (विषाद से) गुरुजी! भागुरायण तो पहिले ही से कहीं भाग गया है।

चाणक्य---(आप ही आप) निज काज साधने के लिये जाय (क्रोध से प्रकाश) भद्रभट, पुरुषदत्त, हिंगुराज, बलगुप्त, राजसेन, रोहिताक्ष और विजयवर्मा से कहो कि दुष्ट भागुरायण को पकड़ें।

शिष्य---जो आज्ञा (बाहर जाकर फिर अाकर विषाद से) महाराज! बड़े दुख की बात है कि सब बेड़े का बेड़ा