पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४
मुद्रा-राक्षस

हलचल हो रहा है। भद्रभट इत्यादि तो सब पिछली ही रात भाग गये।

चाणक्य---(आप ही आप) सब काम सिद्ध करें (प्रकाश) बेटा, सोच मत करो।

जे बात कछु जिय धारि भागे भले सुख सों भागहीं।
जे रहे तेहू जाहिं तिन को, सोच मोहि जिय कछु नहीं॥
सत सैन हूँ सों अधिक साधिनिकाज की जेहिजगकहै।
सो नन्दकुल की खननहारी बुद्धि नित मो में रहै॥

(उठकर और आकाश की ओर देख कर) अभी भद्र-भटादकों को पकड़ता हूँ (आप ही आप) राक्षस! अब मुझसे भाग के कहाँ जायगा, देख----

एकाकी भद गलित गज, जिमि नर लावहिं बांधि।
चन्द्रगुप्त के काज मैं, तिमि तोहि धरि हैं साधि॥

(सब जाते हैं)

(जवनिका गिरती है)


इति प्रथमाड़्क