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द्वितीय अड़्क

अथवा

बिनु भक्ति भूले, बिनहिं स्वारथ हेतु, हम यह पन लियो।
बिनु प्राण के भय, बिनु प्रतिष्ठा लाभ, सब अबलौं कियो॥
सब छाँडि के परदासता एहि हेत, नित प्रति हम करें।
जो स्वर्ग में हूँ स्वामि मम निज शत्रु हत लखि सुख भरें॥

(आकाश की और देख कर दुःख से) हा! भगवती लक्ष्मी! तू बड़ी अगुणज्ञा है। क्योंकि---

निज तुच्छ सुख के हेतु तजि, गुनरासि नन्द नृपाल को।
अब शूद्र में अनुरक्त ह्वै लपटी सुधा मनु व्याल को॥
ज्यों मत्त गज के मरत मद की धरता साथहि नसै।
त्यों नन्द के साथहि नसी किन निलज अजहूँ जग बसे॥

अरे पापिन!

का जग में कुलवन्त नृप, जीवत रह्यो न कोय?
जो तू लपटी शूद्र सों नीच गामिनी होय॥

अथवा

बारवधू जन को अहै, सहजहिं चपल सुभाव।
तजि कुलीन गुनियन करहि, ओछे जन सों चाव॥

तो हम भी अब तेरा आधार ही नाश किये देते हैं (कुछ सोच कर) हम मित्रवर चन्दनदास के घर अपना कुटुम्ब छोड़ कर बाहर चले आये सो, अच्छा ही किया। एक तो अभी कुसुमपुर को चाणक्य घेरा नहीं चाहता, दूसरे यहाँ के निवासी महाराज मे अनुरक्त हैं, इससे हमारे सब उद्योगों में सहायक होते हैं। वहाँ भी विषादिक से चन्द्रगुप्त के नाश करने को और सब प्रकार से शत्रु का दाँव-घात व्यर्थ करने को बहुत साधन देकर शकटदास को छोड़ ही दिया है। प्रतिक्षण शत्रुओं का भेद लेने और उसका उद्योग नाश करने को भी जीवसिद्धि इत्यादि सुहृद नियुक्त ही हैं। सो अबतो---