पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/६५

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मुद्रा-राक्षस

poem>विषवृक्ष अहिसुत, सिहपोत समान जा दुखरास कों। नृपनन्द निजसुत जानि पाल्यौ, सकुल निज असुनाश कों॥ ता चन्द्रगुप्तहि बुद्धि सर मम तुरत मारि गिराइ हैं। जो दुष्ट देव कवच बनि नहिं असह आड़े आइ हैं॥</poem>

(कंचुकी आता है)

कंचुकी---(आप ही आप)

नृपनन्द काम-समान चानक नीति-जर जरजर भयो।
पुनि धर्म सम पुर देह सों नृप चन्द्र क्रम सों बढ़ि लयो॥
अवकाश लहि तेहि लोभ राक्षस जदपि जीतन जाई हैं।
पै सिथिल बल भै नाहिं कोउ बिधि चन्द्र पै जय पाइ हैं॥

(देख कर) यह मन्त्री राक्षस हैं (आगे बढ़ कर) मन्त्री! आपका कल्याण हो।

राक्षस---जाजलक! प्रणाम करता हूँ। अरे प्रियम्बदक! आसन ला।

प्रियम्यदक---(आसन लाकर) यह आसन है, आप बेठें।

कंचुकी---(बैठ कर) मन्त्री! कुमार मलयकेतु ने आपको यह कहा है कि "आपने बहुत दिनों से अपने शरीर का सब शृङ्गार छोड़ दिया है इससे मुझे बड़ा दुःख होता है। यद्यपि आपको अपने स्वामी के गुण नहीं भूलते और उनके वियोग के दुःख में यह सब कुछ नहीं अच्छा लगता तथापि मेरे कहने से आप इनको पहिरें।" (आभरण दिखाता है) मन्त्री! ये आभरण कुमार ने अपने अङ्ग से उतार कर भेजे हैं आप इन्हें धारण करें।

राक्षस---जाजलक! कुमार से कहदो कि तुम्हारे गुणों के आगे मैं स्वामी के गुण भूल गया। पर---