पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/६८

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द्वितीय अंड़्क

प्रियम्बदक---जो आज्ञा (सँपेरें के पास जाकर) चलिए, मन्त्रीजी आपको बुलाते हैं।

सॅपेरा---(मन्त्री के सामने जाकर और देख कर आप ही आप) अरे यही मन्त्री राक्षस है अहा!---

लै बाम बाहु-लताहि राखत कण्ठ सौं खसि खसि परै।
तिमि धरे दच्छिन बाहु काहू गोद में बिचलै गिरै॥
जा बुद्धि के डर होइ संकित-नृप हृदय कुच नहीं धरै।
अजहूँ न लक्ष्मी चन्द्रगुप्तहि गाढ़ आलिंगन करै॥

(प्रकाश) मन्त्री की जय हो।

राक्षस---(देख कर) अरे विराध---(संकोच से बात उढ़ाकर) प्रियम्बदक! मैं जब तक सर्पों से अपना जी बहलाता हूँ तब तक सब को लेकर तू बाहर ठहर।

प्रियम्बदक---जो आज्ञा।

(बाहर जाता है)

राक्षस---मित्र विराधगुप्त! इस आसन पर बैठो।

विराधगुप्त---जो आज्ञा (बैठता है)।

राक्षस---(खेद के सहित निहार कर) हा! महाराज नन्द के आश्रित लोगों की यह अवस्था! (रोता है)।

विराधगुप्त---आप कुछ शोच न करें, भगवान की कृपा से शीघ्र ही वही अवस्था होगी।

राक्षस---मित्र विराधगुप्त! कहो, कुसुमपुर का वृत्तान्त कहो।

विराधगुप्त---महाराज! कुसुमपुर का वृत्तान्त बहुत लम्बा चौड़ा है, इससे जहाँ से आशा हो वहाँ से कहूँ।