पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/७०

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द्वितीय अंड़्क

घबड़ा गये, उनकी उदासी देखकर सुरङ्ग के मार्ग से सर्वार्थसिद्धि तपोवन मे चला गया, और स्वामी के विरह से आप के सब लोग शिथिल हो गये। तब अपने जय की डौड़ी सब नगर में शत्रु लोगो ने फिरवा दी, और आपके भेजे हुए लोग सुरंग में इधर उधर छिप गये, और जिस विषकन्या को आपने चन्द्रगुप्त के नाश हेतु भेजा था उससे तपस्वी पर्वतेश्वर मारा गया।

राक्षस---अहा मित्र! देखो, कैसा आश्चर्य हुआ---

जो विषमयी नृप चन्द्र वध हित नारि राखी लाइ कै।
तासों हत्यो पर्वत उलटि चाणक्य बुद्धि उपाइ कै॥
जिमि करन शक्ति अमोघ अरजुन हेतु धरी छिपाइ कै।
पै कृष्ण के मत सो घटोत्कच पै परी घहराइ कै॥

विराधत---महाराज! समय की सब उलटी गति है।---क्या कीजिएगा?

राक्षस---हाँ! तब क्या हुआ?

विराधगुप्त----तब पिता का बध सुनकर कुमार मलयकेतु नगर से निकल कर चले गए, और पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक पर उन लोगों ने अपना विश्वास जमा लिया। तब उस दुष्ट चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का प्रवेश मुहूर्त प्रसिद्ध करके नगर के सब बढ़ई और लोहारों को बुलाकर एकत्र किया और उनसे कहा कि महाराज के नन्दभवन मे गृह प्रवेश का मुहूर्त ज्योतिषियो ने आज ही आधी रात का दिया है, इससे बाहर से भीतर तक सब द्वारों को जॉच लो; तब उससे बढ़ई लोहारो ने कहा कि "महाराज! चन्द्रगुप्त का गृहप्रवेश जानकर दारुवर्म