पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/७४

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द्वितीय अङ्क

विराधगुप्त---उस मूर्ख को जो आपके यहाँ से व्यय को धन मिला सो उसने अपना बड़ा ठाट बाट फैलाया यह देखते ही चाणक्य चौकन्ना हो गया और उससे अनेक प्रश्न किए, जब उसने उन प्रश्नो का उत्तर अण्डबण्ड दिये तो उस पर पूरा सन्देह करके दुष्ट चाणक्य ने उसको बुरी चाल से मार डाला।

राक्षस---हां! क्या दैव ने यहाँ भी उल्टा हमीं लोगो को मारा! भला वह चन्द्रगुप्त को सोते समय मारने के हेतु जो राजभवन मे वीभत्सकादिक वीर सुरङ्ग मे छिपा रक्खे थे उनका क्या हुआ?

विराधगुप्त---महाराज! कुछ न पूछिये।

राक्षस---(घबड़ा कर) क्यों क्यों! क्या चाणक्य ने जान लिया?

विराधगुप्त---नहीं तो क्या?

राक्षस---कैसे?

विराधगुप्त---महाराज! चन्द्रगुप्त के सोने जाने के पहिले ही वह दुष्ट चाणक्य उस घर में गया और उसको चारों ओर देखा तो भीत की एक दरार से चिउँटियाँ चावल के कने लाती है यह देख कर उस दुष्ट ने निश्चय कर लिया कि इस घर के भीतर मनुष्य छिपे हैं; बस यह निश्चय कर उसने उस घर मे आग लगवा दी और धूआँ से घबड़ा कर निकल तो सके ही नहीं, इससे वे वीभत्स- कादिक वहीं भोतर ही जल कर राख हो गये।

राक्षस---(सोच से) मित्र! देख चन्द्रगुप्त का भाग्य कि सब के सब मर गये। (चिन्ता सहित) अहा! सखा! देख इस दुष्ट चन्द्रगुप्त का भाग्य!!!