पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/७६

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द्वितीय अङ्क

राक्षस---(आप ही आप) भला इतने तक तो कुछ चिन्ता नहीं क्योंकि वह जोगी है उसका घर बिना जी न घबड़ायगा। (प्रकाश) मित्र उसपर अपराध क्या ठहराया?

विराधगुप्त---कि इसी दुष्ट ने राक्षस की भेजी विषकन्या से पर्वतेश्वर को मार डाला।

राक्षस---(आप ही आप) वाहरे कौटिल्य वाह! क्यों न हो।

निज कलंक हम पै धरयौ, हत्यौ अर्द्ध बटवार।
नीति बीज तुव एक ही, फल उपजवत हजार॥

(प्रकाश) हॉ, फिर?

विराधगुप्त---फिर चन्द्रगुप्त के नाश को इसने दारुवर्मादिक नियत किये थे यह दोष लगा कर शकटदास को सूली दे दी।

राक्षस---(दुःख से) हा मित्र! शकटदास! तुम्हारी बड़ी अयो- ग्य मृत्यु हुई। अथवा स्वामी के हेतु तुम्हारे प्राण गये। इससे कुछ शोच नहीं है, शोच हमी लोगों का है कि स्वामी के मरने पर भी जीना चाहते हैं।

विराधगुप्त---मन्त्री! ऐसा न सोचिये, आप ,स्वामी का काम कीजिए।

राक्षस---मित्र।

केवल है यह सोक, जीव लोभ अब लौं बचे।
स्वामि गयो परलोक, पै कृतघ्न इत ही रहे॥

विराधगुप्त---महाराज! ऐसा नहीं (केवल यह ऊपर के छन्द फिर से पड़ता है*)।


  • अर्थात् जो लोग जीव लोभ से बचे हैं वे कृतघ्न हैं आप तो

स्वामी के कार्यसाधन को जीते हैं।