पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/८३

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मुद्रा-राक्षस

(आकाश की ओर देख कर) क्या कहते हो--कि हम लोग अपने काम में लग रहे है? अच्छा अच्छा झटपट सब सिद्ध करो, देखो! वह महाराज चन्द्रगुप्त आ पहुँचे।

बहु दिन श्रम करि नन्द नृप, बह्यो राज धुर जौन।
बालापन ही मे लियौ, चन्द सास निज तौन॥
डिगत न नेकहु विषम पथ, दृढ़ प्रतिज्ञ दृढ़ गात।
गिरन चहत उभरत बहुरि, नेकु न जिय घबरात॥

(नेपथ्य में) इधर महाराज इधर।

(राजा और प्रतिहारी अाते है)

राजा---(आप ही आप) राज उसी का नाम है जिसमें अपनी अाज्ञा चले दूसरे के भरोसे राज करना भी एक बोझा ढोना है। क्योंकि---

जो दूजे को हित करै, तौ खोवै निज काज।
जौ खोयौ निज काज तौ, कौन बात को राज॥
दूजे ही कौ हित करै, तो वह परवस मूढ़।
कठपुतरी सो स्वाद कछु, पावै कबहुँ न कूढ़॥

और राज्य पाकर भी इस दुष्ट राजलक्ष्नी को सम्हालना बहुत कठिन है। क्योकि---

कूर सदा भाखत पियहि, चञ्चल सहज सुभाव।
नर गुन-औगुन नहिं लखति, सज्जन खल सम भाव॥
डरत सूर सो, भीरु कहँ गिनत न कछु रति हीन।
बारनारि अरु लच्छमी, कहौ कौन बम कीन॥

यद्यपि गुरु ने कहा है कि तू झूठी कलह करके स्वतन्त्र हो कर अपना प्रबन्ध आप कर ले, पर यह तो बड़ा पाप सा है।


रति का यहाँ प्रीति अर्थ है।