पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७३
तृतीय अङ्क

चन्द्रगुप्त---आर्य आपने कौमुदी-महोत्सव के न होने में क्या फल सोचा है?

चाणक्य---(हम कर) तो यही उलहना देने को बुलाया है न?

चन्द्रगुप्त---उलहना देने को कभी नहीं।

चाणक्य---तो क्यों?

चन्द्रगुप्त---पूछने को।

चाणक्य---जब पूछना ही है तब तुमको इससे क्या? शिष्य को सर्वदा गुरु की रुचि पर चलना चाहिए।

चन्द्रगुप्त---इसमें कोई सन्देह नहीं, पर आपकी रुचि बिना प्रयोजन नहीं प्रवृत्त होती, इससे पूछा।

चाणक्य---ठीक है, तुमने मेरा आशय जान लिया, बिना प्रयोजन के चाणक्य की रुचि किसी ओर कभी फिरती ही नहीं

चन्द्रगुप्त---इसीसे तो सुने बिना मेरा जी अकुलाता है।

चाणक्य---सुनो, अर्थशास्त्रकारों ने तीन प्रकार के राज्य लिखे हैं--एक राजा के भरोसे, दूसरा मन्त्री के भरोसे, तीसरा राजा और मन्त्री दोनों के भरोसे, सो तुम्हारा राज तो केवल सचिव के भरोसे है, फिर इन बातों के पूछने से क्या? व्यर्थ मुँह दुखाना है, यह सब हम लोगों के भरोसे है, हम लोग जाने।

(राजा क्रोध से मुँह फेर लेता है)

(नेपथ्य मे दो बैतालिक गाते हैं)

प्रथम वै०---(राग विहाग)

अहो यह सरद सम्भु ह्वै आई।
कॉस फूल फूले चहुँ दिसि ते सोई मनु भस्म लगाई॥