पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/८९

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मुद्रा-राक्षस

चन्द उदित सोइ सीस-अभूषन सोभा लगति सुहाई।
तासों रञ्जित घनपटली सोइ मनु गज खाल बनाई॥
फूले कुसुम मुण्ड माला सोइ सोहत अति धवलाई।
राजहॅस सोभा सोइ मानों हास विभव दरसाई॥
अहो यह सरद सम्भु बनि आई।

ओर भी

(राग कलिङ्गडा) हरौ हरि नयन तुम्हारी बाधा।
सरदागम लखि सेस अङ्क तें जगे जगत सुभ साधा॥
कछु कछु खुले मुँदे कछु सोभित आलस भरिअनियारे।
अरुन कमल से मद के माते थिर भये जदपि ढरारे॥
सेस-सीस-मनिचमक चकौधन तनिकहुँ नहि सकुचाहीं।
नींद भरे श्रम जगे चुभन जे नित कमला उर माहीं॥
हरौ हरि नैन तुम्हारी बाधा।

दूसरा वै०---(कडखे की चाल में।)

अहो, जिनको बिधि सब जीवसों,बड़ि दीनो जगकाज।
अरे, दान सलिल वारेसदा, जे जीतहिं गजराजे॥
अहो,झुक्यौ न जिनको मान ते,नृपवर जग सिरताज।
अरे, सहहि न आज्ञा भङ्ग जिमि दन्तपात मृगराज॥

ओर भी

अरे, केवल वहु गहिनौ पहिर, राजा होई न कोय।
अहो, जाको नहिं आज्ञा टरै, सो नृप तुम सम होय॥

चाणक्य---(सुन कर आप ही आप) भला पहिले ने तो देवता रूप शरद के वर्णन मे आशीर्वाद किया, पर इस दूसरे ने क्या कहा? (कुछ सोच कर) अरे जाना, यह सब राक्षस की करतूत है। अरे दुष्ट राक्षस! क्या तू नहीं जानता कि अभी चाणक्य सो नहीं गया है?