पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/९

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अर्थ प्रकृतियाँ--अर्थ प्रकृतियाँ कथावस्तु के वे चम- त्कारपूर्ण अङ्ग हैं जो कथावस्तु को कार्य की ओर ले जाती है। वे ये हैं–१ बीज-कार्य-प्रारम्भ का संकल्प, फल की इच्छा । यह कार्यावस्था के प्रारम्भ से मिलता है।

इस पर हम ऊपर विचार कर चुके हैं। २ विन्दु-जब कुछ अप्रासङ्गिक बातें अथवा असम्बद्ध बातें बीच में आजायॅ और मुख्य प्रयोजन में विच्छेद प्रतीत होने लगे तब जो बात प्रधान कथा के सूत्र को अविच्छिन्न रखती है और कथा-समाप्ति तक जो उसे टूटने नहीं देती, उसे विन्दु कहते हैं। मुद्रा- राक्षस नाटक में मलयकेतु और राक्षस के वर्णनों से मूल अभिप्राय में विच्छिन्नता-सी आती है किन्तु राक्षस की मुद्रा से सम्बन्धित समस्त वृत्त उस विच्छिन्नता में भी अविच्छिन्नता बनाए रखती है। मुद्रा सम्बन्धी समस्त वृत्त ही विन्दु माना जाना चाहिए । ३ पताका-जो कथांश दूसरे के अभिप्राय को तो प्रत्यक्ष सिद्ध करता हो और अप्रत्यक्षतः मुख्य कथा को भी अग्रसर करने में सहायक हो उसे पताका कहते हैं। मुद्राराक्षस में भागुरायण तथा भद्रभट आदि का वृत्त प्रत्यक्षतः तो मलय- केतु और राक्षस पक्ष का हित साधन करता है, पर यही वृत्त अधिकारिक वस्तु को प्रवाहित रखने में सहायक है, अतः पताका है। प्रकरी एक छोटा वृत्त होता है । इससे दूसरे के अर्थ की सिद्धि होती है, मुद्राराक्षस में चाणक्य और चन्द्रगुप्त का कलह राक्षस के अर्थ को सिद्ध करता है, प्रकरी है।

पंच सन्धियाँ--इन पाँचों अर्थ-प्रकृतियों और कार्या- वस्थाओं के साथ पॉच सन्धियों होती हैं। मुख, प्रतिमुख, गर्भ, अवमर्श या विमर्श तथा निर्वहण | ये सन्धियाँ वास्तव में कार्यावस्थाओं के ही दूसरी दृष्टि से दिए गए नाम हैं। मुख