पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/९८

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तृतीय अङ्क

ही आप ह ह ह! राक्षस! यही तुमने चाणक्य को जीतने का उपाय किया।

तुम जान्यौ चाणक्य सो, नृप चन्दहि लरवाय।
सहजहि लैहैं राज हम, निज बल बुद्धि उपाय॥
सो हम तुमहीं कहें छलन, कियो क्रोध परकास।
तुमरोई करिहै उलटि, यह तुव भेद विनास॥

(क्रोध प्रकट करता हुअा चला जाता है)

चन्द्रगुप्त---आर्य वैहीनर! "चाणक्य का अनादर करके आज से हम सब काम काज आप ही सम्हालेगे," यह लोगो से कह दो।

कंचुकी---(आप ही आप ) अरे! आज महाराज ने चाणक्य के पहले आर्य शब्द नहीं कहा! क्यो? क्या सचमुच अधिकार छीन लिया? वा इसमे महाराज का क्या दोष है!

सचिव दोष सों होत हैं, नृपहु बुरे तत्काल।
हाथीवान प्रमाद सो, गज कहवावत व्याल॥

चन्द्रगुप्त---क्यो जी? क्या सोच रहे हो?

कंचुकी---यही महाराज को महाराज शब्द अब यथार्थ शोभा देता है।

चन्द्रगुप्त---(आप ही आप) इन्ही लोगों के धोखा खाने से आर्य का काम होगा। (प्रगट) शोणोत्तरे! इस सूखे कलह से हमारा सिर दुखने लगा, इससे शयनगृह का मार्ग दिखलाओ।